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कविता

लंबी कविताएँ

उपेंद्र कुमार


सत्तू

लउर

बंजर में वर्षा

अदेखे धागे

सदी की कविता

गहन है यह अंधकारा

 

सत्तू

कौशल और मगध के
घुड़सवारों
और पालकीयुक्त वाहनों के
अवशेष
चाहे न हों
आज भी पूर्व की
यात्राओं का अपूर्व
विषय है राजनीति

राजनीति से ऊपर भी
कुछ है
और वह है सत्तू
जिसकी सजी हैं आज भी
मौके की जगह
सड़कों के किनारे
दुकानें
तिकोनी
चोटी पर परचम टिकाए
हरी मिर्च
खींचती है ध्यान
बैठे हैं
जमीन पर ही
सन्नद्ध
आस्वादक

पूरब में सबसे सहज
सबसे लुभावना
कैसेट का गाना
सत्तू का खाना

अनाज को भूनना पीसना
सही अनुपात में मिलाना
कला है वैसी ही
जैसे पाँच सितारा होटल में
खाना बनाना
अथवा
बनाना ही क्यों
ठीक-ठीक नमक पानी मिलाना
कायदे से सानना
चॉप-स्टिक या काँटे-छुरी द्वारा
खाने से
कमतर कला नहीं
हाथ से
सत्तू खाना

भले ही हुसैन की
कामकला से लेकर
चित्रकला तक के
प्रशंसक और कलाकार
मानें या न मानें
मानते हैं इसे सब
भड़भूँजे से चक्की तक की
सत्तू की यात्रा के जानकार
और बड़े-बड़े कलाकार
जिनमें शामिल हैं -

रामू लोहार
भोलू चर्मकार
दमड़ी बढ़ई
और सरजू कुम्हार

ऐसी यात्राओं में
कभी-कभी तो सत्तू
आ बैठता है एकदम बगल में
किसी पोटली में बँधा
किसी झोले में ठूँसा

अब बौड़म जैसा
सवाल नहीं दागना है
कि पोटली में बँधा है सत्तू ही
कैसे पता
अरे भाई
ताजा पीसे सत्तू की सोंधी खुशबू
कभी कैद हो सकती है क्या
किसी पोटली या एयर बैग में
सत्तू को
केवल सत्तू
समझने वालों के लिए
जरूरी है जानना
कि सत्तू का भी
अपना एक इतिहास है
गौरवाशाली और महान
मगध साम्राज्य जैसा

स्वाद लाजवाब
पौष्टिकता बेहिसाब
न बर्तन-बासन की खटपट
न चूल्हे-चौके की तकरार
न पकाने का झंझट
न पानी
न उबाल
थोड़ा नमक
और हरी मिर्च हो तो बात ही क्या
बस
गमछे में ही साना
और खा लिया
निर्विघ्न
सत्तू के इन्हीं गुणों ने
बना डाला था इसे
सर्वोत्तम 'मार्शल फूड'
और मगध साम्राज्य की सेना
इसी के भरोसे निकलती थी
अपने विजय अभियानों पर

बिना सत्तू
जहाँ मुश्किल है गरीब का खाना
वहीं ये भी सच है
कि कर नहीं सकते आप शामिल
सत्तू को शाही दावतों में
परंतु प्रत्येक शाही ताम-झाप
चाहे वह प्रजातंत्र का ही क्या न हो
निश्चय ही टिका होता है
सत्तू खानेवालों पर
सत्तू पर पले पेटों का ही दम है
जो दौड़ता चला जाता है
दहकते सूरज की ओर
फाँदता चला जाता है
ठिठुरते कोहरे की दीवारों के पार
मचाता रहता है घमासान
करता है जीना आसान

सत्तू की प्रशंसा
प्रशंसा है इन्हीं करोड़ों की
जिनके लिए सत्तू
महज साधन नहीं है
भूख मिटाने का
सत्तू ब्रह्म है
राम राज्य का
यथार्थ है और
गारंटी है
कि कमजोर आदमी
न केवल रहेंगे
जिंदा
तमाम अभावों के बरक्स
वरन् जीतेंगे
आनेवाले एक दिन
अपनी तमाम हारी हुई लड़ाइयाँ
और उसी दिन लड़ना पड़ेगा
फिर से
मामूलीपन के वेश में
असाधारण संग्राम
सत्तू की पक्षधरता में।

 

गमछा

जी, हाँ
देखता हूँ सपने में भी गमछा
आप उसे उत्तरीय या अंगवस्त्रम्
कुछ भी कह सकते हैं

अपने नगरीय कुलीन बोध में
गमछे को गमछा कह रहा होता हूँ
तो पूरी
ईमानदारी के साथ
आत्मस्वीकारोक्ति में
संबोधित हूँ उससे
जो ढँकता है पौरुष
उघाड़ता है वीरोचित
अक्खड़पन
छिपा देता है अहंकार

और वह संपत्ति
जिसे मैं किसी को नहीं
बताता खुद को भी नहीं
लेकिन उघाड़ देता है वह मेरा
गँवारपन
स्वाभाविकता से
यह मेरा गँवारपन
मेरी अपनी पहचान
मेरा अपनापा
मेरे मेरा होने का एकमात्र साधन
मैं छिपाता हूँ उसे|
कुलीन लोगों से
जो झूठ मूठ हँसते हैं
झूठ मूठ तरफदारी
झूठ मूठ साथीपन
बाँटते हुए
काट देते हैं आखि़र में
अनुपस्थित होते ही
उनसे बचने के लिए मेरे पास
हथियार हैं अपना गँवारपन छिपाना
मेरा ब्रह्मास्त्र
जिससे पराजित हैं तमाम
कुलीन नगरीय लोग
आप और वे

भर देता है इसका लाल रंग
क्रांति की खुशबू
और चारखाने पहुँचा देते हैं
अरब देश
और रामनामी
पहुँचाती श्रद्धाद्वार
पटरी, हाट, बाजार
कहीं भी जाओगे
पा जाओगे मन चीन्हे
सस्ते सामानों की हर दुकानों में
साधारण सूती वस्त्र का यह अनमोल टुकड़ा
गमछा।

सदियों से
ताल ठोक बहादुरी से
क्षमता और
सक्षमता के साथ
कर रहा है मुकाबला
फैशन बाजारों का
बढ़ती महँगाई
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विश्व बाजार का
अकेला डटा
गरीब के कंधे पर
अंगद के पाँव जैसा

कुछ तो बात है ही
गमछा और इसे इस्तेमाल करनेवालों की
कि भले शरीर पर हो पूरा कपड़ा
कंधे से हटता नहीं गमछा
हुआ होता मार्क्स का जन्म भारत में
निश्चय ही
कंधे पर गमछा
सर्वहारा का बनता प्रतीक चिह्न

नहीं पड़ी गांधी की भी नजर
इस पर
वर्ना प्रत्येक स्वयंसेवक के लिए
पहचान होता कंधे पर रखना
गमछा
छा जाता गांधीवाद पर
छा भी गया था
याद करो संग्राम के दिनों की
पूरब से टोलियों की टोलियाँ
कंधे पर गमछा रखे बढ़ रहे थे स्वाधीनता के पथ पर
अच्छा हुआ बचा रहा
विचारधारा की दृष्टियों से गमछा
वर्ना बन गया होता
किसी पार्टी का झंडा

वैसे अटपटा है
गमछे के संदर्भ में
चिंता या भय का उल्लेख
फिर भी चाहता हूँ
डरें लोग गमछों से
नैतिकता के प्रतीक से
वादों से मुकरे लोग
डरें सोच कर कि
कहीं चल न दें गमछाधारी
वादों की खोज में
कंधे से कंधा मिला
तोड़ते अवरोध
गिराते दीवारे
हाथों में फहराते
गमछा
स्वतंत्रता की लहर-सा
डरें तो
शायद कुछ करें
कुछ सार्थक
और हाशिए में पड़ा गमछा
हो दाखि़ल
कर्णधारों के सपनों में
आखि़र उन्हीं सपनों के रास्ते
पहुँचना है मंजिल तक
बिना झाड़े पैरों की धूल
अथक यात्रा है गमछे की
गमछाधारियों और
हाशिये के लोगों की
जान लें
दुनिया भर के लोग
इसी दौर से
अँगोछे वाला आदमी
पहुँचेगा
बहुत आगे
आगे ही आगे

 

लउर

जि़क्र करूँ मैं अब यदि
लउर का आपसे
यदि नहीं हुए भोजपुर-वासी या भाषी
तो हकबकाकर पूछेंगे आप
का मतलब
मराठी-भाषी होंगे तो पूछेंगे
लउर बोलते तो ?
लउर का अर्थ

गजब है
डंडा, गोजी या लाठी
कुछ भी बताना
उतना ही गलत
जितना साँड़ को बताया बैल
सिर्फ संस्कृतियाँ जानती हैं
साँड़ और बैल का अंतर

ओ शहरी बाबू
प्रभु वर्ग का यही अज्ञान
सारी समस्याओं का बीज है

शुरू होती है सरहद अज्ञान की
गाँव-गँवई की देहाती सुगंध से
स्थिति-परिस्थिति, आशा-निराशा
जरूरतें, परेशानियाँ, जोश-हताशा
नाक की ऊँचाई
यहीं निर्मित होती है
घटी तो शर्मसार
वरना हिम्मतवान

अपनी संपूर्णता में
सभ्य कानों तक
पहुँचेगी सीमा पार

अभिजात, नगरीय-बोध में ऐंठे
ऊँचे-ऊँचे आसनों पर बैठे
अमर-बेल की जड़ों तक पैठे
बुद्धिजीवियों को
समझाने की
ये समस्या पता नहीं केवल मेरी है
या सबकी है
मेरी दिक्क़त
असमर्थकता या अल्पज्ञता होती तो
नहीं कर रहा होता
बर्बाद आपका वक्त
आज ये परेशानी
सबकी है सब ओर फैली है

नहीं, नहीं श्रीमान
हिकारत से हाथ हिलाते हुए
मेरी बात टालने से पहले
जरा ठहरिए
मेरे पास प्रमाण हैं

जी, हाँ
गांधी से प्रेमचंद तक के सारे प्रयास
विफल रहे हैं
सहानुभूतिपूर्ण संवाद से इस दूरी को
मिटाने में
असफल रहे है सारे महापुरुष
राजनीति से लेकर समाज-शास्त्र तक के महापंडित
शहरी और देहाती समझ के बीच फैली
इस खाई को पाटने में
सारे बड़े-बड़े दावे
चाहे वो धोती वाले के हों, लुंगी वाले के हों
या पगड़ी वालों के हों
वहाँ उस तपती रेत में निष्प्राण पड़े हैं
जी, श्रीमान

ठीक वहीं, जहाँ पड़े हैं निष्प्राण शरीर किसानों के
उन लाखों-लाख ग्रामवासियों के
जो मजबूर थे
मौत को माँ की गोद समझ
सो जाने के लिए

क्षमा करें श्रीमान
मैं भी कहाँ-कहाँ भटक जाता हूँ
बेकार की बातों में अटक जाता हूँ
लउर के अफसाने में व्यवस्था का जि़क्र
जब कि कुछ लेना-देना नहीं है
लउर को आत्म-हत्या से
लउर से संबन्धित मुहावरे हैं -
       लउर ना अउर,
       चले मियाँ जगदीशपुर
तो गीत भी हैं -
       धुरिया चटावे जाने, पीठ न देखावे जाने
       डीठ ना लगावे जाने, आने के बहुरिया।
       आन पर लड़ावे जाने, जान के ना जान जाने
       चले के उतान जाने, तान के लउरिया।
परन्तु लउर का
ठीक-ठीक अर्थ जानने के लिए
आवश्यक है आप जानें
लउर के निर्माण की प्रक्रिया

सबसे पहले तो खोजनी होती है
बँसवाड़ी
जो न एकदम नई हो, न बहुत पुरानी
फिर मुठ्ठी-भर के समान अंतर पर ठोस गाँठों वाला
एक सीधा हरौती बाँस
न कच्चा हरा, न पका पीला
न बहुत लचीला, न बहुत हठीला
यानी पकड़े रहना है
बीच का रास्ता

देखो आगे यह दिलचस्प प्रक्रिया

होती है बँसवाड़ियाँ
विषधर नागों का प्रिय स्थान
हिकमत, चौकन्नापन और फुर्ती हो
तभी आप तलाश सकते हैं
और काटकर ला सकते हैं
मनचाहा हरौती बाँस

यानी समझदार और साहसी की ही
संपत्ति हो सकती है लउर

नहीं है आसान
मनचाहे बाँस को
लउर में बदलना

कोई ब्रांड प्रोडक्ट तो है नहीं
बंदूक, तमंचे, पाउडर या क्रीम जैसा
भिन्न होती है प्रत्येक लउर
दूसरे किसी भी लउर से
ठीक वैसे ही जैसे होते हैं भिन्न चेहरे
लउर रखने वालों के
पहली बात लंबाई की
आपके लउर की लंबाई होनी चाहिए
आपकी लंबाई से बित्ता भर ज्यादा
ताकि बनी रहे आपकी पहुँच दूर तक
और चलाने में भी रहे आसानी

फिर आग में तपा कर बाँस को सीधा करना
तकरीबन उतना ही श्रम-साध्य
उतनी ही कुशलता आवश्यक
जितनी सोने को तपा शुद्ध करने में
अब तो आप समझ गए होंगे
क्यों होती है लउर इतनी कीमती
अपने स्वामी के लिए

इतना सब निबटाने के बाद
शुरू होता है लउर को
तेल पिलाने का काम
जब फुर्सत मिली लउर को निकाल
उस पर सरसों का तेल चुपड़ना
करना इंतजार
जब तक सोख न ले तेल पूरी तरह
और फिर खोंस देना लउर को चुहानी के छप्पर में

ताकि चूल्हे का धुँआ लगते-लगते
उसका रंग हो जाए गहरा कत्थई
चलती है एक लंबे समय तक लगातार यह क्रिया
तब होती है तैयार लोहे-सी लउर
बम की तरह कारगार वह दिखने वाली
पर नहीं डरावनी

कभी मत पड़िए बहकावों में
इस्पात कंपनियों के दावों में
लउर लोहा ही है
असली भारतीय लोहा

अंतिम श्रृंगार के लिए
दोनों छोरों पर आप
पसंद के अनुसार
लगावा सकते हैं लोह-बंद
पीतल या लोहे का
ताकि लउर की ठनक
पड़े हमेशा भारी
सिक्कों की खनक पर

तो तैयार होती है ऐसे लउर
और फिर जब
थामे अपनी लउर होकर उतान
निकलते हैं, गाँव देहात से मर्दे-हिंदोस्तान
होती है अलग ही उनकी आन-बान शान

खेत-खलिहान, घर-दुआर
गाय-बैल जैसी ही लउर
एक सुरक्षित प्रमाण
जुड़ जाती है पोशाक की तरह
ग्रामीण की संपत्ति में
अविभाज्य
पढ़ रहा हूँ
चेहरे पर आए
मनोभाव आपके
किसी भी दमदार डंडे, या गोजी को
नहीं कह सकते लउर

लउर को समझिए

लउर है प्रतीक
आन-बान शान का
हमले का हथियार नहीं
संबल-शक्ति है
लउर ढाल है
किसी भी आपदा-विपदा के विरूद्ध

सम्राट के हाथ में उठा
राजदंड
आज भी दिलाता है भरोसा
न्याय का, अनुशासन का
सन्नद्ध हाथों में उठा हुआ लउर भी है
'प्रजादंड'

दया का, सुरक्षा का और समृद्धि का
किसी ग्रामीण के हाथ
लउर का आना
विरथ रघुवीरा के लिए
जेहि जय होई सो स्यंदन आना
लोगों की मजबूत पकड़ में बँधी
यह महान अहिंसक शक्ति
बन जाती है सुरक्षा कवच
ताकतवर माकूल
प्रायोजित हमलों के विरूद्ध

आपको समझाने के चक्कर में
लउर पर कविता लिख
मोल ले रहा हूँ मैं
बहुत बड़ा खतरा
बंदूक या तमंचे की तरह
लगा यदि लाइसेन्स इस पर

तो होगा लोगों के हाथ में लउर
और सामने मेरी कविता

एक हिदायतनामे की तरह
भविष्य का शांति-कपोत

समझते थे बापू
लउर को
प्रतीकात्मक रूप में
लाठी बन रहा उनके हाथों में
सदा बना रहा प्रहरी

हाँ, प्रहरी भी तो है
लउर
खेत-खलिहान का
परिवार, परिजनों के कल्याण का
आत्म-सम्मान का

उतरता है जब बाढ़ का पानी
गंगा के दियर में
तो मिट चुकी होती है
खेतों की विभाजक आड़-डंरेड़
कठिन हो जाता है
पहचानना अपना ही खेत
कहावत है कि
लउर से ही जाती है खींची
आड़-डंरेड़
जी हाँ
खेतों के सीमांत
निर्धारित होते हैं तब लउर से

समझदारी
शांति, मैत्री, सद्भाव और
सम्मानजनक समझौतों के लिए भी
आवश्यक है
लउर

एक प्रतीक की तरह
लउर सदा रखी रहनी चाहिए
सौंदर्य वृद्धि के बहाने
अपने विदेश मंत्री के दफ्तर में भी

मत भूलिए
सशक्त हाथों में
दृढ़ता से पकड़ी गई लउर की
अहिंसक मुद्रा ही थी
जिससे घबड़ा
भागे थे अंग्रेज

जन-मानस में रची-बसी है
लउर
सम्राट अशोक के ऐतिहासिक लाट की तरह
पूजनीय
लउर-बाबा के नाम से
ग्रामीणों द्वारा बिहार में
पूजा स्थल
बेतिया के पास लउरिया में

मैं 
कायम हूँ अपनी बात पर
नहीं होता कोई संबंध
लउर का आत्महत्या से
पर लउर का होकर रहेगा संबंध
उन हाथों से
जो करते हैं विवश किसानों को
आत्म-हत्या के लिए

प्रभुजी आपके
लाख चिल्लाने पर भी
कि आप समझ गए हैं
मैं समझाता रहूँगा
तब तक
जब तक आती रहेंगी खबरें
किसानों की खुदकुशी की

मैं तो लउर की बात
लिख रहा हूँ
हाथ में कलम लिए

आ जाएँगे लाखों-लाख
हाथों में लउर उठाएँ
लिखे को क्रिया में बदलने

धरी रह जाएँगी
भस्मासुरी उदारता-जैसी
उदार आर्थिक नीतियाँ
और विश्व बाजार के लिए नए नक्शे

पलट देंगे वे नक्शे
तब खोजते रहेंगे आप
सुरक्षा-तंत्र

आज भी खड़ा है
प्रहरी लउर

किसान
न बदले जा सकेंगे
मजदूरों में
कितनी भी कोशिश करें
सेठ और बहुउद्देशीय कंपनियाँ

अपने अटूट मनोबल
असीम साहस
अपार शक्ति के साथ
लउर पकड़ने वाले हाथ
बेताब हो रहे हैं
अपनी अहिंसक मुद्रा में आने को
महाने अशोक की लाट में बदल जाने को
'प्रजादंड' बन जाने को

 

बंजर में वर्षा

जलते वन में
सड़क खुद आग है
वहीं खड़े थे ऋषि
तपस्वी वरयाम
यादों के धाम
उनकी हँसी मेरे हृदय से
निकल छप गई
पर्वतों पर
और वे हो गए उजले
धौलाधार.....

आओ मित्र
पूरे बंजर ने कहा
पूरी आत्मीयता से
वरियाम ने कहा
वर्षा के लिए
ताप पिघला और
बन गया वाष्प
और तब जाना कि गर्मी का मौसम
हो चाहे मैदानी इलाकों का
अथवा पहाड़ों का
लोगों को करता है समान रूप से व्याकुल
आतुर, प्रतीक्षारत
बरसात के लिए
वैसे मैदानी गर्मी झेल
पहाड़ों तक पहुँचे हम जैसों को
सुखद सर्दी का एहसास कराता है
पहाड़ों पर गर्मी का मौसम
हाँ है गर्मी-सर्दी
एक ही सिक्के के दो पहलू

यहाँ पहाड़ों में
मौसम नहीं होता कभी एक जैसा
बदलता रहता है वह रूप
अलग-अलग
हर जगह, हर स्थान पर
मौसम और मिजाज की सापेक्षता में
फिर भी एक सत्य है - बारिश
पहाड़ हो या मैदान
गर्मी हो, ठंड हो
या हो बरसात
जुड़ा है जिससे जीवन
बरसात पहाड़ों की
नहीं होती अलग
केवल मैदानी बरसात से
होती है वह अलग
अलग-अलग पहाड़ों पर भी
कभी-कभी तो चोटियों या
घाटियों के अनुरूप
धरती है वह अलग-अलग रूप

चलते समय जो थी बरसात
सोलन घाटी में
था उसका रंग ही अलग
उस बरसात से
जो मिली हमें बंजर में
ठीक वैसे ही जैसे है
अलग सौन्दर्य
तीर्थन घाटी का

कहीं गए होते हम और आगे
तो देखते बारिश का अलग ही ढंग
किन्नौर की घाटी में

नहीं बाँटती प्रकृति
बरसात
स्कूली पोशाक की तरह
बाँटती है वह
बरसात
अलग-अलग वादियों को
ठीक वैसे
बाँटती है जैसे
कोई सास, साड़ियों
अलग-अलग छापों और रंगों वाली
बहुओं को अपनी
करती जाहिर अपना प्यार-दुलार
बहुओं के रूप-गुण अनुसार
ज्यादा या कम
पीला, हरा, गुलाबी, लाल-टहक या मद्धम
सच में हो सकता है कैसे
एक जैसा ही
मिजाज और रंग
सपाट बर्फ पर गिरती बरसात का
घास के मैदानों पर पड़ती मेघ-वृष्टि
और पेड़ों-पत्तों पर गिरती वर्षा-बूँदों का

वर्षा से मिलते ही
छेड़ते हैं राग
पेड़

सुनते हैं जिसे हम
होता नहीं वह शोर
बूँदों के गिरने का
होता है वह
खुशी से झूमते पत्तों का
गाया हुआ गीत

पूरी हो तन्मयता
सही हो माहौल और मिजाज
यानी एक सही मनःस्थिति
(शास्त्रीय संगीत सुनने वाली)
तो होता है तुरंत महसूस
झमझमाती बरसात में
जो राग गा रहे होते हैं देवदार
होता है वह अलग
उन रागों से
जो छेड़ा होता है अखरोट-वृक्ष की पत्तियों ने
या नासपाती और सेव के फलदारों ने

आडू, खुमानी, प्लम
रसभरी और चैरी
सबसे अलग
समारोह पूर्वक गा रहे होते हैं
लोकगीत कोई

बरसने जितना ही
दिलकश और दिलफरेब होता है
समेटना दामन
बरसात का
हाय! क्या-क्या अदाएँ
कैसी-कैसी भंगिमाएँ
हर बदली के वापस जाने की

किसी के हुए रहते हैं गाललाल
तो किसी के होंठ श्यामल
पानी में भीग-भीग
रंग ही बदले-बदले
आते हैं नजर
उनकी साड़ियों और लहँगों के
हल्का नीला हो गया होता है
सुंदर गहरा नीला
सफेल-धूमिल श्याम
लाल- कत्थई
और आसमानी-सलोना श्याम

शामिल है
इन लौटती बदलियों में
वह भी
चली आई थी जो
ऐन दरवाजे के बाहर
ओसारे में
लौट रही है
वही बदली
वह भी बिन बरसे
अश्रुपूरित नेत्रों से निहारती
न जाने क्या-क्या
किसे-किसे और कहाँ-कहाँ

जो रह गईं
थोड़ी बरसी और थोड़ी बिन बरसी
लौटती हैं इठलाती हुई
लौटती हैं बदलियाँ
कुछ बलखाती
कुछ हंसों जैसी तैरती-चाल से
तो कुछ वापस लौटने की जल्दबाजी में
तेज-तेज चलती हुई

ये मेघ सुंदरियाँ
अपने हाव-भाव से
करती हैं समूचे वक्त को
मंत्रमुग्ध
लौटती हैं
छोड़ बाण-विद्ध
अपनी तिरछी चितवन से
नाज भरी चाल से
जिस धज से हैं पड़ते
लौटते कदम इनके
उस लुभावने अंदाज से
हो चुका होता है
मन हमारा बैचेन इतना
तड़प उठते हैं हम मिलने को बार-बार
बिछुड़ते ही इनसे हरबार

हम सैलानी कहीं से भी हों
बंजर में हम भी भूल जाते हैं राष्ट्रीयताएँ
और पहाड़ी और भोजपुरिए
फल और खैनी
सब कुछ मिल जाता है, जैसे ही
बंजर में गिरता है पानी

पकाता है हमारी स्मृतियाँ
और हम देखते हैं
कल्पना के दृश्यों में भोजपुरी फिल्मों के डायलाग
गा रहे हैं वरयाम सिंह
गाते जा रहे हैं वरयाम सिंह
खेतों की मुंडेरों के पास
बरसाती सरसों की सुरमई धुन में

 

अदेखे धागे

यह जो चल रहा है मेरे साथ
या वह जो वहाँ
मशगूल है अपने काम में
या फिर दूर वह
जो अभी गुजरा है सड़क से
कभी लगता है
एक ही है यह सब

और कभी लगता है
अपनी-अपनी तकलीफों
अपनी-अपनी शर्तों पर जीवन जीने की कोशिश में
लड़ी गई तमाम लड़ाइयों से उपजे
ये अलग-अलग चेहरे हैं
जिन्हें एक में मिलाना या एक ही मानना
होगी वैसी ही भयंकर भूल
जैसी लालगढ़ और छत्तीसगढ़ को एक समझना

संघर्ष की इन अलग-अलग तस्वीरों को
डाल देना एक ही फ्रेम में
अनुचित होगा
वैसे यह बात दीगर है कि
इनसे या इन जैसी अनेक
सहज सुलभ तस्वीरों से
व्यवस्था अपने अप्रतिम कौशल से
बना लेती है एक कोलाज
सो सार्थक भले न हो लगता है सुंदर

मैं जिन संघर्षों या लड़ाइयों की बात कर रहा हूँ
वह किसी महान क्रांतियों की बात नहीं
वरन एक सहज, आम, घरेलू जिंदगी को
बस अपनी थोड़ी-सी शर्तों के साथ
जी लेने की जि़द की बात कर रहा हूँ

और फिर शर्ते भी खास नहीं
बस थोड़ा-सा आत्म-सम्मान
थोड़ी-सी ईमानदारी
पेट भर खाना, आँख भर नींद
भरम के साथ थोड़ा भरोसा, भाईचारा भी
मनभर दुःख हो तो छँटाक भर सुख भी
कुल मिलाकर आदमी की आम घरेलू जिंदगी
थोड़ा आदमी की तरह

क्या आप कभी मिले हैं
अनजान जो मिले
बन गए हमेशा के लिए
अपनो से गहरे अपने
जब ऐसा कोई बनता है आपका दोस्त
तो पहली बार समझ में आता है
इस शब्द का सही अर्थ
एक दोस्त जो चुपचाप शामिल हो जाता है
आपके सुख-दुःख में, आपके जीवन में
जरूरत के चरम क्षणों में
जब आप खोलते हैं दरवाजा
तो अचानक उसे सामने खड़ा देख
होते हैं जितने भौचक उतने ही प्रसन्न

किसी लंबी बीमारी के उदास दिनों में
जब तक थक-चुक और थोड़ा ऊब चुके होते हैं
परिवार के लोग
अचानक खुशनुमा आवाज आती हैं
कैसे हो सब लोग
लो, कल से मेरी छुट्टियाँ हैं, यहीं मनाऊँगा अवकाश
सब को रहेगा थोड़ा आराम
और आप जान जाते हैं वह आ गया है
वही हरफनमौला
जो सुस्वादु व्यंजन के बारे में बताता है
मज़ेदार चुटकले सुनाता है
महफि़लों की जान
वही
जो फिर
बना ही रहता है आस-पास
बहुत दिनों से भीतर दबाया बहुत कुछ
बाहर निकाल देने
किसी कंधे पर सर रख
थोड़ी देर रो लेने की
तीव्र लालसा के बावजूद
आप सब कुछ झटक कर
हँस देते हैं
कि फिर कौर सुखाएगा
उसका गीला रूमाल

बाद में
समेट लिए जाने के
सारे भरोसों के बावजूद
बिखरने नहीं देता वह
अपने सामने
कुछ भी
वह कहीं से बाँध देता है
अटूट अदेखे धागे से

हाँ, मैं
किन्हीं महान क्रांतिकारियों की नहीं
वरन् बात कर रहा हूँ
छोटी-छोटी लड़ाइयों
के उन लड़वैयों की
जो रोजमर्रा की घरेलू जिंदगी में
लड़ रहे होते हैं
अपने बनाए नियमों से
और अपने बैलौस फक्कड़पने के साथ
बने रहते हैं हमारे आस-पास

नियम भी कोई खास नहीं
बस थोड़ा-सा सकून
थोड़ी-सी नींद
थोड़ा-सा आत्म-सम्मान
और थोड़ी-सी ईमानदारी
अपनी पूरी आदमियत के साथ

विश्वास जानिए
छोटी लड़ाइयों के यही सेनानायक
होंगे हमारे आस-पास
जब हो रही होंगी महान क्रांतियाँ
जब लड़ी जा रही होंगी बड़ी लड़ाइयाँ
इन्हीं की हड्डियों से बनेंगे हथियार
जो चलेंगे इन्हीं के हाथों
ये ही वरेंगे विजय श्री

 

सदी की कविता

अपनी आत्मा में संचित अतृप्त इच्छाओं के
प्रवंचनापूर्ण नेपथ्य संगीत को सुनता है
गलत-सही का विवेक जाग्रत किए बिना
खाई से निकल खंदक में गिरता है
वह नहीं एक
पूरी भीड़ है
अपने फन में माहिर
चलते फिरते नर-कंकालों को
रोबोट की तरह जोतने में
कत्ल करने और कातिल बनाने में
और सब कुछ करके
अपना उल्लू सीधा करने में
पूरी तरह माहिर है
यह सच भी है और
यही हादसा भी है इस सदी का
मची है मार-काट
आदमी आदमी के खून का प्यासा
हर ओर
भस्मासुरी संस्कृति
भौतिकता का आसव छानकर
समूची सभ्यता को लीलने को आतुर है

एक ताकत गिरा रही दूसरे पर बम
रोटी के टुकड़े पर राजनीति लिखी जा रही है
देह खुलती है, और कुछ और उससे भी ज्यादा
उसकी नाप-जोख में डूबती
डूब जाती है जाने कब
बाजार के विस्तार में
इतना आकर्षक, मोहक और लुभाऊ बन गया है
सब कुछ इतना चमकीला
लुभावना
और इस हद तक सम्मोहक कि
इनसान के भीतर पड़ी होती है अंतरात्मा
कचरे की तरह
उसमें किसी हरकत की बिलबिलाहट
खबर तक नहीं लगती
जिसे जीना चाहिए उसे मार रहे हैं
और निषेध को
जिला रहे हैं लोग
अमृत की घुट्टी पिला रहे हैं
कि हिंसा और आतंक का नंगा नाच चले
तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है

दो

यह एक सुखद संयोग है कि
पड़ते हैं साथ-साथ
उम्र और देश की आजादी की वर्षगाँठ
बहुत अच्छा लगता था
गर्व से भर जाता था मन
देश से अपने को अलग करना
रत्ती भर भी नहीं गवारा था
आज उम्र के इस मोड़ पर
देख पाता हूँ सच
भावुकता से ऊपर उठकर
समय बीतने के साथ-साथ होना चाहिए था
जो भाईचारा नहीं है
क्रमशः शक्तिहीन होता वह
आडंबर बना सामने पड़ा है
सब कुछ उलटा-पुलटा
रास्ते गलत, थकी हुई उम्मीदें
अँधेरों में डूबते इस दौर को
मैं कैसे छोड़ देता
गाड़ी को रास्ते पर लाने के लिए
संघर्ष किया : अपने को खपाया
लिखा, चीखा-चिल्लाया
लोगों को जगाया,
हर विकल्प आजमाया,
लोगों से मिला : समझाया
घूम-घूमकर अलख जगाया
पर मेरे और आजादी के बाद पैदा हुए
रहनुमाओं की खींची
लक्ष्मण रेखा से टकरा कर
फिर अपनी म्यान में लौट आया।
कभी-कभी अपनी सीमा के लिए
अपने को धिक्कारा
समर्थता के खोल से बाहर निकल
साथ चलने के लिए लोगों को ललकारा
लेकिन क्या करूँ
तूती की आवाज दूर तक नहीं जाती
इस नक्कारखाने के बाहर
जहाँ जानी चाहिए
उस समय तो बेतहाशा झटका लगा
धैर्य साथ छोड़ गया
जब देशवासियों को
धर्म के नाम पर
अपने से अलग खड़ा पाया
अपनी पाखंडपूर्ण दुरभिसंधि की पूर्ति के लिए
बेतहाशा अड़ा पाया
मेरा दिल बैठ गया
सारा कौमी जुनून ढह गया
पानी पर पड़े पत्ते जैसा बह गया
दूसरों की ओर देखता हूँ तो
अंहग्रस्त स्वार्थी तत्वों से लबालब और
अपनी तरफ देखता हूँ तो
व्यक्तिगत स्वार्थों से घिरा
कोई कोशिश कोई रास्ता नहीं

मैं पूछता हूँ
न जाने किससे
क्या यही गाँधी नेहरू लोहिया का देश है
जो चंद बाहुबली सरदारों
भ्रष्टाचारी दलालों
के हाथ की कठपुतली बन गया है
जो इसे अपने इंगित पर नचा रहे हैं
भरमा रहे हैं
और फिसल पड़े तो हर गंगा का
उद्घोष सुना रहे हैं

कलम तलवार से ताकतवर
यह मिथ भले ही छलावा हो हमारे लिए आज
या रूपवादियों का बहलावा
लेकिन मैं लिए हूँ कलम
जोखिमों के बीच जाग रही हैं
आँखें, कलम और स्याही
यह सिद्ध करने के लिए
कि आज की राजनीतिक और धार्मिक उन्मादियों,
भ्रष्ट और संवेदनहीन निर्माताओं की
भीड़ के ठीक सामने खड़े हैं कुछ
नहीं हुई जिनकी कलम बंधक
उनके भीतर अब भी बिलबिलाते हैं
आक्रोश और करुणा निरन्तर
हे मेरे देश
आज फिर हमारी वर्षगाँठ है
तुम मुझे यह उपहार दो कि मैं तुम्हारे लिए
समर्पित हो सकूँ : वादा कर सकूँ
अपने और तुम्हारे प्रति सदैव ईमानदार रहने का

तीन

हम इकाई को दहाई से : दहाई को सैकड़ा से
सैकड़ा को हजार, लाख, करोड़ में बदलने के हैं अभ्यस्त
हमारी दृष्टि नहीं लाँघ पाती
घर की दो अदद चारपाइयों की सीमा
सभी भीतर से असुरक्षित और भयग्रस्त
बाहर से अपने को सही साबुत दिखाने के
प्रवंचक प्रयत्न में अलमस्त

जिधर नजर दौड़ाइए
बिके हुए लोगों की जमात अपनी टुच्ची
स्वार्थ-सिद्धि में लगी है
बाहर से भरे-पूरे इनसान
अन्दर से हैवानियत के मनसबदार
ग ज ब दशकंधरी लीला चल रही है
शील सद्गुण और समानता की सीता
हरी जा रही है
सबके दिलों में मचल रहे हैं
स्वर्ग तक सोने की सीढ़ी
बनाने के प्रयत्न
जनता और अजनता सब मंच पर
तय हैं सबकी भूमिकाएँ
हे, मेरे देश
मैंने बचपन से तुम्हें एक जीवित इकाई के रूप में
देखा और परखा है
तुम्हारे माध्यम से हमने विभिन्न अंचलों के
लोगों को देखा और पहचाना है
है मुझे कुछ बोध उस अंतःसूत्र का
जिसने तुम्हें बिखरने से बचाया है
तुमने सहे वर्षों के उतार-चढ़ाव में
परायों द्वारा अपने शरीर पर लगे घावों को
मुझे दिखाया है

तुम पराजित नहीं हुए मेरे देश
फिर क्यों इतने अवसादग्रस्त दीख रहे हो
चेहरा कुछ और धूमिल हो गया
आँखें खुली-सी
पर वे न जाने किस अतीत में जा खो गई थीं
उसकी वेदना और घनीभूत हो उठी थी
कण्ठावरोध की स्थिति आ गई थी
उसी से उबर कर उसने कहा
हमारी किश्ती कैसे किनारे लगेगी?
विकराल काल की उत्ताल तरंगों से
कैसे उबरेगी?
देख नहीं रहे हो
अपनी क्रोड से पैदा हुए
पले-बढ़े ये मेरे ऊँचे-पूरे बलिष्ठ कंधों वाले पुत्र
बेवफाई पर उतरे या
अपनी नादानी से
पहुँचाते कैसी-कैसी चोटें
जो ठीक होने की जगह बन जाती हैं नासूर
देह पर हर तरफ से रिसते नासूर
सदानीरा नदियों की तरह
मेरा दिल उनकी पाट में
बुरी तरह पिस रहा है
अपनों की नादानी
अपनों के दिए बड़े गहरे घाव
कठिन होता है उबरना
परायों के दिए घावों को भुलाते
अपनों के दिए घाव
बढ़ती व्यथा
खतरों से घिरा अस्तित्व
पत्थर कर जाता है मुझे
न दहलता हूँ मैं और न पिघलता हूँ।

मैंने अवाक् हो इस वक्तव्य को सुना
और अपना सर पकड़ बैठ गया
मेरे कान में कहीं से गीत की ध्वनि आई
       'ऐ मेरे वतन के लोगो ज रा आँख में भर लो पानी
       जो शहीद हुए हैं उनकी ज रा याद करो कुरबानी'
मेरी तन्द्रा इसी से भंग हुई थी।

चार

मैं तो शब्दों का सौदागर
जन्मभर उन्हें ठोकता बजाता रहा
उनके अस्ल और कम-अस्ल का भेद
जानने के लिए आतुर रहा
उन्हें उठाता : जोड़ता-घटाता और
कविता के दिव्य चंद्रहार में जड़ता रहा
पर वे सैलानी मुझे उलटा पाठ पढ़ाते रहे
सदैव पकड़ से फिसल धता बताते रहे
आज भी स्थिति बदली नहीं है,
कोशिश में हूँ : कुछ सधे-बधे : हाथ लगे
यही सोचता हुआ मन अपने कोटर में समाता है
शरीर तनाव मुक्त होता है : एक हल्की झपकी लग जाती है
अचानक मेरे समक्ष देश का मानचित्र प्रस्तुत होता है
जिसे उसी की बगल में खड़े महात्मा गाँधी
एकटक देख रहे हैं
मैं कभी मानचित्र को देखता हूँ
तो कभी महात्मा जी को
निराला ने अशब्द अधरों का
भाष सुना था
वे कवि थे : अतः उसे समझ सकते थे
मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि
आदान-प्रदान की उस क्रिया का विवरण दूँ
अचानक तन्द्रा उचटी : मैं प्रकृतिस्थ हुआ
पर वह चित्रा मेरी आँखों के सामने घूमता रहा
एक समय महात्मा जी और देश पर्याय थे
आज हम प्रगतिशील आगे बढ़ गए
छोड़कर पीछे उन्हें
चारों ओर घूम रहे हैं कबंध
आकुल व्याकुल अपनी जमात बढ़ाने के लिए
जारी है कबंधों की लीला
नापाक अनुबंधों से बँधी
बात-बात पर बवंडर
हर सद्भाव चिंदी-चिंदी करने में सधी है
हर युग पर छाये अभिशाप की तरह कालजयी

मैं कुछ और सोचता दृश्य बदल गया
गए चुनावों की सूचना के साथ
एक राजनीतिक नुमायंदे का प्रवेश
सब कुछ जैसे बज उठा
नमक-मिर्च लगी खबरें,
शीर्षकों में आए गए दलों के दलदल
पिछली बार के सारे मसले
सब कुछ गूँजता रहा शोर की तरह
और मेरे समक्ष था देश का नक्शा
उसकी बगल में खड़े गाँधी का चित्र
पुनः कौंध गया
मौन अब मुखर में बदल रहा था
उसकी व्यंजना परिवेश से घुल-मिल रही थी
अपने सैन-बैन से बहुत कुछ कह रही थी
समझा-बुझा रही थी
अबूझ पहेली जैसी रहस्य की गाँठ
पर्त-दर-पर्त खुलने लगी थी
उसकी ओट में प्रकाश दोनों को उद्भासित
करने लगा था
परन्तु परिवेश में निहित बर्बर स्वार्थपरता का
घटाटोप अंधकार उसे आच्छादित
कर ले रहा था
युगों से सत्य-असत्य का यह संघर्ष
निरन्तर चल रहा है
शायद आगे भी सदैव चलता रहेगा
उनके बीच होने वाला जय पराजय का
द्वंद्व ही तो मानवता का इतिहास है
लगता है इतिहास करवट बदलने को तैयार है
यही तो व्यक्तिगत और समष्टिगत
जीवन का आचार है : व्यवहार है
प्रश्न है आखिर उसकी दिशा और
दशा क्या होगी?

गाँधी ने पास रखी विवेक की कूँची
और शील-सदाचार के रंग से
नक्शे के बगल की दीवार पर
एक बड़ा प्रश्नचिद्द निर्मित कर दिया
फिर अदृश्य हो गए वे
देश का मानचित्र बिना हवा के
दीवाल पर लड़ता रहा : फड़फड़ाता रहा
मैं उसे देखने और उसकी नियति का
तख्मीना लगाने में व्यस्त हो गया था।

पाँच

देवासुर संग्राम बड़ा बहुरूपिया होता है,
व्यक्ति में वह मानसिक संघर्ष के रूप में
सामने आता है
समाज में परंपरा और प्रयोग टकराव का
रूप ले लेता है
पर वही
शक्तियों का
युद्ध बन जाता है।
प्रकृति और परिवेश के अनुसार प्रकार में
भेद हो जाता है
व्यक्ति उससे एकाकी जूझता है
समाज विकास के आधार पर खेमों में बँटकर
टंट-घंट से उसके रहस्यों को बूझता है
पर राष्ट्र अपनी व्यथा से
मुकाबला करता है
राष्ट्रपिता ने अपने प्रश्नचिह्न से
शायद इसी बात को दरसाया था
उसके गूढ़ार्थ को समझकर ही शायद
देश का मानचित्र फड़फड़ाया था
विज्ञापन का युग
व्यवसाय तंत्र का हाँका
सब कुछ बिकाऊ
परंपरा, संस्कार, मर्यादा
और सारी धरोहरें
तनावग्रस्त जीवन से व्यथित व्यक्ति का
मन बहलाता बाजार का सच
छोड़ जाता है डूबा हुआ कुंठा में अवसाद में
सही साबुत इनसान
लुप्त होता जा रहा है
शील संतोष और करुणा का आदर्श
मूल्यों का दौर
सांस्कृतिक चेतना की परंपरा
और वह सब कुछ जो
एक सूत्रा में पिरोती है लोगों को, देश को
और विरोधों के परिसर का मार्ग दिखाकर
विषमता के तपते माथे पर रखती है
माँ की तरह का ठंडा हाथ
समता का दिग्दर्शन कराती है
देश मैं देख रहा हूँ हर तरफ घात-आघात
तुम्हारी अखंडता के साथ विश्वासघात

मैंने बहुत सोच-समझकर
महाभारत में
एकाकी संघर्ष का व्रत लिया
राजनीतिक दलों को समझाया-बुझाया
लेकिन सिंहासन के मोह में
कहाँ रहता है
साधन और साध्य का विचार
दुर्योधन के, धृतराष्ट्र के लिए
कहाँ मायने रखता है कुछ भी
छल-छद्म और येन-केन-प्रकारेण के
रास्ते पर चाहे-अनचाहे औजार बनते हैं
पितामह, द्रोण, कृपाचार्य और विदुर तक
अंध-श्रद्धा और परंपरा से ग्रस्त समाज
और छल-छद्म के औजार बने लोगों की
सदैव दुर्गति होती है
उन्हें अंततः मिलता है निराशा का घटाटोप

छः

निराशावादी अपनी अदूरदर्शिता से अपने लिए
अजीब नकार की रचना कर डालता है
प्रारोपित यंत्रणाओं को भोगता है
मुक्त होने के लिए ढूँढ़ता है
दिवास्वप्न का सहारा
और ऐसी भूल-भुलैया में उलझ जाता है
जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता
अतृप्त वासनाएँ ही उसे बना देती हैं
असामाजिक, दिशाहीन
ऊँचाई पाते ही कूदना
स्वार्थ के कुएँ में
राजनीतिक पदों के शिखरों को जाते
लोगों को देखते रहते हैं हम
आचरण के खोल उतारे
कभी विदूषकों तो कभी शैतानों के बाने में
बेशर्म वासनाओं का
हिंसा का
छीना-झपटी का
जीवन-धर्म
बड़ा होकर पसर जाता है चौतरफा बार-बार
राजनीति में भ्रष्टाचार का यह मनोविज्ञान
बड़ा मारक हो गया है
मैं तो आशावादी हूँ
मैंने उसके पर कतर उसे सीमा में रखा है
मैं मनुष्य की अच्छाई में विश्वास करता हूँ
बार-बार धोखा खाने पर भी उससे नहीं डिगता हूँ
इस बार भी मैं विचलित नहीं हुआ
विवेक जगाने, रास्ते पर लाने का काम करता रहा
लोगों की बेरुखी देखकर

एक कहानी मुझे याद आई
आज नहीं तो कल शायद वह
आपको कुछ सोचने के लिए विवश करे -
एक संत जंगल में कुटी बना रहते थे
वे बड़े निष्काम, निर्लिप्त और त्यागी थे
अन्दर और बाहर से पूरी तरह विरागी थे
एक बहेलिया उस जंगल में आता था
जाल फैलाता था : दाना डालता था
चिड़ियाँ उसे चुगने के लिए बैठती थीं
वह उन्हें फँसा कर ले जाता था
इससे संत बड़े दुःखी रहते थे
उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि
वे चिड़ियों की बोली जान जाएँ
तहेदिल से की गई प्रार्थना
निष्फल नहीं होती
उन्हें उसका ज्ञान प्राप्त हो गया
उन्होंने चिड़ियों को इकट्ठा किया
समझाया
       'बहेलिया आएगा : जाल फैलाएगा
       दाना डालेगा
       जो उसे खाने बैठेगा
       वह जाल में फँस जाएगा
       मारा जाएगा'
चिड़ियों ने इसे रट लिया
बहेलिया आया
उसने जाल फैलाया
सभी चिड़ियाँ दाने के मोह में
संत द्वारा बताए गए
मंत्र को दुहराती हुई
उसमें फँस गईं
मैं मन ही मन सोचने लगा
यही स्थिति हमारे आस-पास है हम सबकी
बिलबिलाते डरे हुए लोग
और दलों का बढ़ता दलदल
बढ़ती जातीयता और प्रांतीयता के कँटीले तार
नापाक गठबंधन
रामनामियों-मुखौटों से सजे
बेशर्म और धूर्त पालनहार
चुनाव का दौर
दिए गए प्रलोभन
छल-छद्म के पहिए पर दौड़ती राजनीति
बार-बार कौंधता है बहेलिए का जाल
जिसमें लोग फँस जाते हैं
सारा विवेक ताक पर रख

सामने मेज पर रखी है चाय
चाय से उठती भाप
और मेज के उस तरफ बैठी पत्नी
इसके बीच पड़ा मोटी हैडलाइनों स
बोल पड़ता अखबार एक सच है
और दूसरा सच है
चुस्कियों से पत्नी की आँखों तक
पसरा आनंद
समझ में नहीं आ रहा है कि
यह सब क्या है?
अपने को जानने की जिज्ञासा थी कि
भीतर की ऊब से सहज मुक्ति की अभिलाषा
कितनी झीनी
विभाजक रेखा लिए हुए है।
काश! समझ गया होता तो
शायद न यह प्रश्न मौजूँ होता
और न उसका उत्तर
दोनों एक हो गए होते
यह बात सहज गले उतर गई होती
कि अपने को जानने से ही मिलता है छुटकारा
भीतरी जड़ता से

देश की आजादी अभी अधूरी है
अद्भुत प्रवंचना पूर्ण प्रलोभन की
नापाक मजबूरी है
देश में चलने वाला पंचसाला चुनाव नाटक है
यह हठयोगी की त्रिभंगी मुद्रा का बेतुका त्राटक है
इससे पहले कि देश
अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग से
खंड खंड हो विखंडित हो जाए
अमन चैन लुप्त और बर्बरता महिमा मंडित हो जाए
हमें सचेतन हो
सब कुछ सही परिप्रेक्ष्य में समझना होगा
आज हम जो कुछ भी हैं
उससे अपने आपको बड़ा करना होगा

 

गहन है यह अंधकारा

एक बार देवता, दानव और मानव,
ब्रह्मा के पास गए
उन्होंने प्रणत होकर उपदेश के लिए प्रार्थना की
ब्रह्मा अजीब सोच में पड़ गए
       उन्हें लगा कि उन्होंने जन्म भर उपदेश ही तो दिया है
       पर उसका पालन किसी ने नहीं किया है
       सिद्धांत जब आचरण में उतरता है तो
       वह व्यक्ति और समाज को महिमामंडित करता है
       जब उसका उचित ढंग से पालन नहीं किया जाता तो
       वही उनकी प्रतिमा को खंडित करता है
       खंडित प्रतिमा पूजा के काम नहीं आती
       वह त्याग दी जाती है
       देखिए तो सही
       आज खोंढ़ और खंडित इनसानों की
       भयंकर बाढ़ आ गई है
       उसकी दरेर में सब कुछ बह गया है
       इनसानियत के नाम पर आँसू बहाने वाला
       कोई तो नहीं रह गया है
उनके मस्तक की रेखाएँ सिकुड़ गईं
हृदय में एकत्रित उच्छ्वास की भाप
मुख से निकल पड़ी
उन्होंने आगंतुकों की ओर देखा
अपना पिंड छुड़ाने के लिए
उनसे एक शब्द 'द' कहा

उनकी ओर सार्थक दृष्टि से देखा
फिर मौन हो गए
       इसका प्रभाव गहरा उठा
       उससे उठी अव्यक्त व्यंजना की सुगंधि ने
       सबको अपने आगोश में ले लिया
       उस समय तो इसका स्वरूप अबूझ बना रहा
       थोड़े समय में उसमें स्फोट हुआ
       अतः उसमें अंतर्निहित संदेश
       तीनों के लिए स्पष्ट हो गया
देवताओं को ज्ञात हुआ कि
वे वासनातिरेक से ग्रसित हैं
अतः उन्हें उसका दमन करना चाहिए
दानवों को लगा कि वे
अतिशय नृशंस और अन्यायी हैं
उनको अपने में दया का भाव पैदा करना चाहिए
विधि-निषेध को पालना कि
आचार-विचार को मानना चाहिए
मनुष्य को बोध हुआ कि
वह अत्यंत आत्मकेंद्रित हो गया है
वह निन्यानवे के फेर में पड़ा है
केवल अपने लिए कमाता और उसे खाता है
उसकी दृष्टि घर की दो अदद चारपाई तक ही सीमित है
उसे लोकहित में सोचना कि
       सबके हित के लिए दान करना चाहिए
       दत्त, दम्यत् और दयध्वम् की यह बात
       सबके गले के नीचे तो नहीं उतर पाई
       फिर भी कुछ लोग उस पर अमल करते
       और उसे अपने आचरण में उतारते रहे
       इससे समाज में उतनी बदअमली न थी कि
       व्यक्ति का जीना दूभर हो जाए
धीरे-धीरे इनका लोप हो गया
कुछ बचे-खुचे मानवीय आदर्शों को भी
परंपरा ने निगल लिया
इससे विच्छिन्न हो गया इनसान में
बसने वाले दानव-मानव और देवता का संबंध
लग गया लोक हितकारी तत्वों पर प्रतिबंध
देवता जब पतित होता है तो मानव बनता है
मानव जब अपने आदर्श से च्युत होता है तो
दानव बनता है
मनुष्य में ही तो भला-बुरा बसता है
जब वह असंतुलित हो जाता है तो
मानवीय आदर्श को तजता है
देखिए तो सही
आज के मानव को दानवी विषदंत उग आए हैं
वह आदमीयत को अपने जबड़े में लेकर
पगुरा रहा है

मैं इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि
एक बालक दौड़ता हुआ आया
वह घबरा कर कह पड़ा
चाचा जी सामने सूखे विशाल वृक्ष के
कोटर में एक सर्प है
वह चिड़ियों के अंडों और बच्चों को खा रहा है
वे असहाय होकर इधर-उधर उड़कर
शोर मचा रही हैं
उस पर कोई असर नहीं हो रहा है
उन्हें बचा लीजिए चाचाजी
मैं हलफला कर उठा
       वृक्ष की ओर बढ़ गया
       सर्प आहट पाकर उसी कोटर में समा गया
       बिलखती चिड़ियाँ साहस करके
       अपने घोंसलों की ओर गईं
       काश मैं उनकी भाषा को जानता होता तो
       उनकी व्यथा-कथा को आप तक पहुँचाता
       मैं चुपचाप लौट आया
       स्मृति बड़ी अड़भंगी होती है
       उसके तेजाबी रसायन में
       अतीत का घटना-क्रम रसा-बसा होता है जो
       उत्प्रेरक का संसर्ग मिलते ही
       अचानक मूर्तरूप में सामने आ जाता है
वृक्ष का भूत मेरी आँखों में कौंध गया
उसे मेरे बाबा ने लगाया था
उसकी विधिवत देखभाल की थी
स्नेह से इनसान का दिल ही प्रफुल्लित नहीं होता
जड़-चेतन सभी उल्लसित हो उठते हैं
उन्हें विकास का पूरा अवसर मिलता है
वृक्ष को वह प्राप्त हुआ था
दत्त दम्यत् और दयध्वम् के ही समन्वित
आदर्श का वह प्रतिरूप था
कितना मनोहारी तोषक और पोषक था उसका प्रभाव
वह बौरता था टिकोरा लेता था
फल बढ़ता था पकता था
फिर वह निःशेष भाव से अपने को
लोकहित के लिए सौंप देता था
कितनी शीतल थी उसकी छाया
कितना स्वादिष्ट था उसका फल
पर वह सूख गया
       यही बात समाज के संदर्भ में सत्य है
       जब भी वह दान, दया और
       दमन से रिक्त होता है तो
       उसके लिए लोकहित अतिरिक्त होता है
       वह वृक्ष जैसे सूख कर कोटरों में बदल जाता है
       जिसमें मनुष्य जैसे विषधर निवास करते हैं
       वे अपने अहं का सेगा चलाकर
       सब कुछ हस्तगत कर लेते हैं
       इनसानियत के सीने पर दाल दलकर
       अपनी तोंद का दायरा बढ़ाते हैं
यह परंपरा जैसे-जैसे जटिल बनती जाती है
इनसान की नीयत उतनी ही कुटिल होती जाती है
इसके दो पाटों की दरेर में कोई साबित नहीं बचता है
समाज जड़ हो जाता है
अंधश्रद्धा और परंपरानुमोदन राजदंड बन जाता है
फिर तो आँख के अंधे और गाँठ के पूरे लोगों को
अपनी दूषित तामसी वृत्ति को पूरा करने का
अमोघ अस्त्र मिल जाता है
वे बेरोक-टोक उसका प्रयोग करते हैं कि
लोगों की पीठ और पेट पर सवारी कसकर
उन्हें हर तरह से बेहाल बना देते हैं।

दो

आज की कविता या तो किसी तथाकथित
लोक-दर्शन से उलझ जाती है
वक्तव्यों तथा कॉफी हाउस की बहसों से
कागजी घोड़ा दौड़ा कर गरीबी या फटेहाली को
नेस्तनाबूद करने का इजहार करती है या
कथ्य को अटपटे ढंग से व्यक्त करने के कारण
उलटबाँसी बन जाता है
हम पश्चिमी लेखकों के नाम की माला जपते हैं
उनके आदर्श के अनुकरण को
अपना जीवन-धर्म मान लेते हैं

इसीलिए हमारे समाज में उसका सरोकार
नहीं रह जाता है
उधारखाते का ज्ञान ही नहीं आदर्श भी
बड़ा खतरनाक होता है
वह हमें बेगाना बना देता है
जो अपना ही नहीं है वह लोक का नहीं हो सकता
मेरी कविता तो लोकजीवन से जनमती है
उसकी विद्रूपता पर फलती-फूलती है
समाज की असंगति को
दृष्टांत के द्वारा स्पष्ट करती है
जहाँ तक संभव है उससे जूझती है
उसका निराकरण भी प्रस्तुत करती है
इसी बात का प्रयास मैं कर रहा हूँ
पहले के अक्लमन्द के लिए इशारा काफी था
अब उसकी खाल मोटी और
दिल की मीजान छोटी हो गई है
अतः कविता को आँख में अंजन लगाने के साथ ही
दिल के कल्मष को धोना
और व्यक्ति को इनसानियत से जोड़ना पड़ता है
       पहले के कवियों ने इसे किया है
       आज के कवि को भी इसे करना पड़ेगा
       आज कलम शत्रु तो नहीं बन सकती
       पर लोक-जीवन का शास्त्र बन सकती है
       अगर वह अपने इस उद्देश्य में असफल होगी तो
       उसका नाम-लेवा पानी-देवा नहीं रह जाएगा
       वर्तमान को समझने का सच भूत में नहीं होता
       भविष्य के अदृश्य क्षितिज पर भी
       झिलमिलाता रहता है
       उसे सावधानी से समझना पड़ता है
       भूत में भी विचारकों ने तर्कसंगत ढंग से
       समाज को देशकाल के अनुरूप रहने लायक
       बनाने का प्रयत्न किया था
उनका अपना जीवन-दर्शन लोक-दर्शन
और आचार-विचार का दर्शन था
आज उसकी चेतना तो लुप्त हो गई है
केवल परंपरा की मुनादी हो रही है
जब से विकृति को संस्कृति मानने का
नापाक प्रयत्न हुआ है
ब्राह्मणवादी पाखंडी कर्मकांड ने जीवन पर
हावी होने का प्रयत्न किया है
तब से उसका दुष्परिणाम देश को भुगतना पड़ रहा है
व्यक्ति ही नहीं समाज भी
उस चक्की में पिस रहा है
इसी का दो टूक निरूपण यह कविता है

महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव के पिता का नाम विट्ठल पंत था
वे थे परम विद्यानुरागी और वैरागी
परिस्थितिवश उन्हें गृहस्थी बसानी पड़ी
पर वे उसमें रम न सके
एक दिन वे घर से निकल पड़े और पहुँच गए काशी
उन्होंने परिणय की बात को गुप्त रखा और संन्यास ले लिया
मध्यकालीन भारतीय नारी की नियति
मोटी कलम से लिखी गई थी
पति-रहित नारी की नियति की तुलना
जल-रहित नदी से की गई थी
उसके लिए जीवन के औघट-घाट पर
किसी अटपटे समझौते के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग न था
रुक्मिणी ने अपनी वेदना को समेटकर
उसी का वरण किया
भगवान की शरण गह
वह मंदिर जाने लगी कि
अपना सारा समय ईश आराधना में बिताने लगी
नियति नटी की लीला अबूझ है विचित्र है
उसके कारनामे का इतिहास रहस्यमय होते हुए भी
सचित्र है
पर इस चित्र को न तो सब लोग बाँच सकते हैं

न समझ सकते हैं
पृथ्वी में पड़े बीज की तरह वह स्वयं प्रस्फुटित होकर
सामने उपस्थित हो जाता है
और इनसान न चाहते हुए भी उसके फल को भोगता है
यह प्रच्छन्न लीला बड़ी निर्दय और क्रूर होती है
उतार-चढ़ाव भरे जीवन की संकुलता से
भरपूर होती है
कहते हैं कि होनहार को सदैव सर्वत्र
दरवाजा खुला मिलता है
वह बे-रोक-टोक उसी से प्रवेश करके
अपना स्वाँग रचता है और
जीवन को दे जाता है एक चाही-अनचाही दिशा जो
सदैव प्रिय नहीं होती, अप्रिय भी होती है
विधि की विडंबना का यह प्रसंग आगे बढ़ा
रुक्मिणी के पति को संन्यस्त करने वाले
संत श्रीपाद स्वामी घूमते-टहलते आलंदी के
मारुति के मंदिर में पहुँचे और वहीं ठहरे
रुक्मिणी भी पूजन के लिए वहाँ जाती थी
भगवान के समक्ष नतमस्तक होकर उन्हें
अपनी व्यथा सुनाती थी
पूजा समाप्त करके परिक्रमा के क्रम में
उसने श्रीपाद स्वामी को वहाँ देखा
उन्होंने गैरिकवस्त्र धारण किया था
स्वस्थ छरहरे शरीर से उत्तरीय लटक रहा था
वपु सौम्य और कांतिमान था
उनके चतुर्दिक शांतिपूर्ण प्रकाशमय वलय था
वह उन्हें देखकर ठगी सी खड़ी रह गई
न मालूम किस प्रेरणा से सुध-बुध खोकर
उनके चरणों में साष्टांग दंडवत करने लगी
संन्यासी ने देखा एक दूसरा यौवन छवि से
दीप्तिमान कांति वलय उनके समक्ष नतमस्तक है
उनके मुख से सहसा निकल पड़ा
       'उठो देवि उठो, मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ
       पुत्रवती भव'
रुक्मिणी को यह आशीर्वाद बाण जैसे बेध गया
वह व्यथा से आंदोलित हो उठी
वह बैठी हुई थी : अब भी वस्त्र अस्त-व्यस्त थे
उनसे भी अधिक अस्त-व्यस्त था उसका मन
आँखों से मर्म-व्यथा झर रही थी
वह डबडबाई आँखों से निर्निमेष उन्हें देख रही थी
अधर रह-रह कर फड़क रहे थे
पर व्यथाभार से जिह्ना तालू से सट गई थी
संत ने पुनः दृढ़ स्वर में दुहराया
       'पुत्रवती भव' : 'पुत्रवती भव'
अब वह फूट-फूट कर रोने लगी
संत ने सहज भाव से पूछा
       'क्या बात है देवि!
       मेरे आशीर्वाद से तुम इतनी अवाक् और स्तब्ध
       क्यों हो गई हो
       तुम्हारे नेत्रों से असमय बरसात क्यों हो रही है
       मेरा आशीर्वाद निष्फल नहीं होगा'
वे अभी और कुछ कहते कि
विकल होकर रुक्मिणी ने आँचल से
अपना मुँह ढँक लिया
आँखों से बरसात और तीव्र हो गई।
शरीर वायु से कंपित लता की तरह आंदोलित हो उठा
कुछ समय बाद अवरुद्ध वाणी में कंपन हुआ
एक स्फुट निवेदन प्रतिध्वनित हो उठा
       'हे देवता! मेरे पति संन्यासी हो गए हैं
       आपका यह आशीर्वाद कैसे सार्थक होगा'
संत ने निर्द्वंद्व भाव से कहा
       'वह तो सार्थक होगा देवि!
       हर हालत में सार्थक होगा
       तुम्हारे पति तुम्हें मिलेंगे
       तुम्हारा रूठा सौभाग्य तुम्हें गले लगाएगा
अपना बनाएगा।'
यह कहकर वे मंदिर में अपने इष्ट की
मूर्ति के समक्ष बैठ गए
कुछ देर बाद बाहर आए
उन्हें ज्ञात हो गया कि जिस व्यक्ति ने
काशी में चैतन्य स्वामी के नाम से
झूठ बोलकर संन्यास लिया है
वही उसका पति है : जीवन-निधि है : सर्वस्व है
उन्होंने पुनः दृढ़ स्वर में कहा
       'तुम्हारा पति तुम्हें मिलेगा'
वे वहीं से लौट पड़े : काशी आए
चैतन्य स्वामी को झूठ बोलकर
संन्यास लेने के लिए दुत्कारा, फटकारा और
उन्हें घर लौटने का आदेश दिया।

 

तीन
 

कौन नहीं जानता कि ब्राह्मण धर्म अजीब
विरोधाभास की पोटली बन गया है
वह तो भानुमती का पिटारा हो गया है
उसमें हाथ डालिए और अपने समर्थन का
सूत्र निकाल लीजिए
इसने वर्णाश्रम व्यवस्था को जाति व्यवस्था में बदल दिया है
बहुतों के नैसर्गिक अधिकार से उन्हें वंचित किया है
सब कुछ को मंडल और कमंडल तक सीमित कर दिया है
एक तरफ गुरु की महिमा का गान किया है
दूसरी तरफ सद्गुरुओं की बानी का उपहास किया है
तुलसी को इसी काशी में दर-दर की खाक छाननी पड़ी है
कबीर को अपमान का घूँट पीना पड़ा है
ये तो कबीर को भी ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न बताते हैं
पर इसका जवाब नहीं देते कि
नारद, वशिष्ठ और शुकदेव किस ब्राह्मणी से पैदा हुए थे
जब से कर्म को जन्म से स्थानापन्न किया गया है
तब से संस्कृति को पामाल और विपन्न बनाया गया है
वे लोग बार-बार धूल चाटते और पराभूत होते हैं
जो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि
ब्राह्मण का उच्छिष्ट भी अतिविशिष्ट होता है
पर वे अपनी आदत से बाज नहीं आते
यह दुरभिसंधि खूब सफल हुई है
फली है, फूली है
उसके गरल से बहुतों को जान गँवानी पड़ी है
फिर भी यह चल रही है
चलती का नाम गाड़ी है
उसकी न कोई अगाड़ी है न पिछाड़ी है

विट्ठल पंत के घर आते ही बवाल शुरू हो गया
आर्य संस्कृति खतरे में है का नारा दिया गया
कूड़ मगज ब्राह्मण एक मंच पर आए
उन्होंने मनु, पाराशर और याज्ञवल्क्य की दुहाई दी
पंचायत की गई : निर्णय सुनाया गया
       'संन्यासी गृहस्थ नहीं हो सकता
       पंत ने धर्मानुकूल आचरण नहीं किया है
       उन्हें सर्वसम्मति से जातिच्युत किया जाता है।'
पंत ने इसे सुन लिया
वे तो खलील जिब्रान की तरह मानते थे
       'जब ज्ञान इतना घमंडी हो जाए कि
       वह रो न सके
       इतना गंभीर बन जाए कि
       अपने सिवाय किसी की चिंता न करे
       तो वह अज्ञान से अधिक खतरनाक बन जाता है।'
और भी किसी ने कहा है, 'ज्ञान का ध्येय सत्य है
और सत्य आत्मा की भूख है'
पंचायत के निर्णय में सत्य के लिए स्थान न था
इसीलिए वह अज्ञान था
पंत ने अपनी आत्मा की आवाज को सुना और
गृहस्थाश्रम का पालन किया
उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव और सोपानदेव
नामक तीन पुत्र
और मुक्ताबाई नाम की एक कन्या पैदा हुई
कृष्ण का जन्म जेलखाने में हुआ था
इनका जन्म भी ब्राह्मणों द्वारा
निर्धारित दकियानूस, मान्यताओं के कैदखाने में हुआ
'सबसे कठिन जाति अपमाना'
इन्होंने उसे भी चुपचाप सहा
जाति-बहिष्कार को सफल बनाने के लिए
आर्थिक नाकेबंदी की गई
सम्मान का कसाला तो पहले से ही था
अब रोटी के लाले पड़ गए
बड़ा होने पर निवृत्तिनाथ के उपनयन
संस्कार की माँग करने पर
उनको घोर मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ी
हर वेदना की एक हद होती है
अब तो उनके समक्ष हद और सरहद का सवाल नहीं था
पानी सिर से डोल गया था
बचा-खुचा धीरज भी बोल गया था
थका तैराक फेन चाटता है
थका आस्तिक अपनी वेदना को
इष्ट-समर्पण से बाँटता है
संत को तो इल्लत, किल्लत, जि ल्लत
झेलना ही पड़ता है
जब दुनियादार लोग पोंछिटा खोलकर
पीछे पड़ जाते हैं तो
कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा हो जाती है
संत विट्ठल पंत तो तुलसी जैसे नहीं थे
जो ललकार कर कहते हैं
       'काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब
       काहू की जाति बिगारब न कोई।'
उनको तो घर था परिवार था
उनका लौकिक आचार-व्यवहार था
यही तो समस्या थी
पर उसी में उनका समाधान भी था
विवश होकर वे तीर्थ-यात्रा के लिए
त्रायंबकेश्वर गए
वहाँ वे कुशावर्त नदी में महानिशा में
स्नान करके ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करते थे
जो मिल जाता था उसे खाकर
सपरिवार मगन रहते थे
भले लोग बताते हैं कि संयोग और वियोग
जीवन-सरिता के दो कूल हैं
इन्हीं के बीच उसकी
अजस्र चेतना की दिव्यधार प्रवाहित होती है
हर संयोग में वियोग और वियोग में
संयोग रसा-बसा रहता है
हम अपने चर्म-चक्षुओं से
उसे न देख पाते हैं और न उसके रहस्य को
समझ पाते हैं
अतः उस तक पहुँचने का सवाल ही दीगर है
आसमान से ही उल्कापात होता है
उसी से जीवन-सार जल भी मिलता है
अव्यक्त की क्रोड़ में पड़ा हमारे संस्कारों का बीज
स्वयं अंकुरित होकर किसी घटना के रूप में
हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है
वह अनजाने ही जीवन को
नई दिशा दे जाता है
महानिशा में परिक्रमा के समय
ऐसी ही घटना घटी
एक विशालकाय सिंह दहाड़ता हुआ
अपने रौद्र-रूप में उनके सामने उपस्थित हो गया
सब लोग घबरा कर इधर-उधर भाग खड़े हुए
निवृत्तिनाथ सामने की गुफा में चले गए
वहाँ नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध संत
गहिनी नाथ तपस्यारत थे
उन्होंने उन्हें अपना लिया
'राम कृष्ण हरि' का मंत्र दिया और
उसके प्रचार का आदेश दिया
इस घटना से संपूर्ण परिवार के भविष्य को
दिशा-निर्देश मिल गया
मिल गया वह शरणस्थल जिसे पाकर
विट्ठल पंत कृतकृत्य हो गए
उन्होंने गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम
स्वीकार किया था
अपने को अब्राह्मण मानने को तैयार न थे
उन्होंने अपनी जाति के लोगों से
अपने को पुनः ब्राह्मण रूप में
स्वीकार करने का आग्रह किया
इसे उन्होंने हुक्म उदूली माना
उनकी दृष्टि में यह अक्षम्य अपराध था
अतः उन्होंने प्रायश्चित्त के रूप में मृत्युदंड
का आदेश दिया
तितिक्षा संत का अलंकार होती है
शम-दम उसका प्रमुख आचार होता है
वह शस्त्र से नहीं लड़ता है
क्षमा के शास्त्र से लड़ता है
लोक की क्रूरता के निवारण के लिए
लोगों के हृदय-परिवर्तन के लिए
अपने प्राणों की आहुति देने में भी नहीं हिचकता है
विट्ठल पंत अपनी पत्नी के साथ प्रयाग गए
दोनों ने इस महत् उद्देश्य की सिद्धि के लिए
जल-समाधि ले ली
लोग कहते हैं ईसा, सुकरात और
मुहम्मद ने बड़ा त्याग किया था
गाँधी ने जानते हुए हत्यारे की गोली खाकर
इतिहास रचा था
विट्ठल पंत जैसे निर्लिप्त लोगों का उत्सर्ग
क्या उसी कोटि में नहीं आता
फिर इसे भुला क्यों दिया गया है
बिसरा क्यों दिया गया है
वह इतिहास के पन्नों से लुप्त क्यों है
आप भी उसका कारण खोजें
शायद इस प्रयास से इतिहास के पन्नों से
त्याग और तपस्या की और दास्तानें सामने आएँ
और वे हमारी आँख खोल सकें
सभी स्तब्ध रह गए

 

चार 

दिल तो सबके पास है
लेकिन दिलदार कितने लोग हैं
ज्ञान तो हमारे चारों ओर फैला है
लेकिन ज्ञानसार कितने लोग हैं
जलसमाधि की घटना पैठण गाँव पहुँची
जीवन के हर क्षेत्र में कुछ लोग नरमपंथी होते हैं
पर अधिकांश होते हैं चरम और गरमपंथी
पहले तरह के लोगों में करुणा होती है
पर दूसरे तरह के लोग होते हैं निष्करुण : निर्दय
पहले वर्ग के लोग निवृत्तिनाथ बंधुओं के साथ ही
भगिनी के भी अपनाव के पक्ष में थे
पर दूसरी तरह के लोग 'धर्म खतरे में है' का नारा देकर
दुराव के पक्ष में थे
दूसरा पक्ष प्रबल था
उन्हें अपनी कूढ़-मगजी का एकांतिक संबल था
बात आई गई पार हो गई
'फूलहिं फलहिं न बेंत...।'
मत्सरी बुद्धि का ध्येय अपने प्रतिद्वंद्वी को
अपमानित करना और नीचा दिखाना होता है
येन-केन-प्रकारेण उसे जलील करके
उसकी अस्मिता को अस्वीकार करना होता है
पर यह नहीं हो पाया
'सीम कि चाँपि सकै कोइ तासू
बड़ रखवार रमापति जासू'
भाई-बहन की ख्याति बढ़ती जा रही थी
जाने-माने संत के रूप में वे प्रतिष्ठित हो चुके थे
आस-पास के लोग भी उनका सम्मान करने लगे थे
दूर-दराज के लोग भी दर्शन के लिए आते थे
अब हर तरह की परेशानी दूर हो चुकी थी
दूर हो चुकी थी चिंता और झिक-झिक
ईर्ष्या का अपना डंक और विष होता है
वह अपनी फुफकार से सर्प की तरह विष उगलती है
और दूसरे की शक्तियों को भस्मीभूत कर देती है
वह द्वेष की सगी बहन होती है
रक्त का संबंध होने के कारण
दोनों साथ-साथ रहते और
अनाहूत एक-दूसरे को सशक्त बनाते रहते हैं
ईर्ष्यालु व्यक्ति अकारण द्वेष का आह्नान करता है
और अपने व्यंग्य-बाण से दूसरे का हृदय छेदता रहता है
विवेकहीन व्यंग्य मूर्ख के हाथ की दुधारी तलवार होता है
यह दोनों ओर वार करता है
ज्ञानदेव के परिवार की ख्याति ने
जले पर नमक का काम किया था
एक पोंगापंथी ब्राह्मण भैंसे को जोतने
के लिए ले जा रहा था
रास्ते में सपरिवार निवृत्तिनाथ मिल गए
उसने उन्हें देखते ही व्यंग्य-बाण दागा'नाम में क्या रखा है
मेरे भैंसे का नाम भी ग्याना है'
ज्ञानदेव हँसकर कह पड़े
       'अरे भाई वह भी वही है जो मैं हूँ'
पोंगापंथी ने कटाक्ष किया
       'तुम तो अभी वेदमंत्र बोल रहे थे
       क्या यह भी उसे बोल सकता है'
ज्ञानदेव सहर्ष भैंसे की ओर बढ़ गए
उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ रखा
वह मंत्र बोलने लगा
इस अघट-घटना से देखते ही देखते भीड़ जुट गई
लोग आश्चर्यचकित होकर उनकी सराहना करने लगे
ज्ञानदेव ने निवेदन किया
       'अब तो आप लोग हम लोगों को पवित्र मान लें'
मूर्खों की महासभा फिर बैठी
विचार-विमर्श हुआ
बार-बार पोंगापंथी-धर्म अपनी टाँग अड़ाता रहा
उनकी आँख पर पट्टी बाँधकर अड़बी-तड़बी पढ़ाता रहा
सत्य पर फिर एक बार असत्य की विजय हुई
मानव के चोले में बसने वाला दानव बोल पड़ा
       'आप पवित्र हैं
       हम आपको ब्राह्मण मानते हैं
       जाति में लेते हैं
       पर एक शर्त है
       आप लोग परिणय न करेंगे
       जिससे आपकी संतान उत्पन्न होकर
       ब्राह्मणों की भावी पीढ़ी को भ्रष्ट न बनाए''
निवृत्तिनाथ का परिवार चुपचाप आगे बढ़ गया
अचानक दिन में ही घुग्घू ने आवाज दी और दिशाएँ
धिक्-धिक् धुड़ी-धुड़ी के स्वर से आंदोलित हो उठीं

पाँच

कविता तो कहानी खतम पैसा हजम के बिंदु पर आ गई है
इसे यहीं समाप्त समझना चाहिए
पर पता नहीं क्यों हाथ में कलम को देखकर
सामने पड़ा कागज फड़फड़ा रहा है
मन भी भूत को वर्तमान के संदर्भ में परखने कि
भविष्य के लिए कुछ छोड़ने को तड़फड़ा रहा है
मैं जानता हूँ कि कविता को संकेत करना चाहिए
साफ-साफ कहना नहीं चाहिए
पर जब संकेत की समझ की शक्ति चुक जाय तो
साफगोई पर उतरना आवश्यक हो जाता है
कवि कोई वीतरागी तो है नहीं कि अपने घर को
तपोवन बना ले
सब कुछ छोड़कर एकांत में आसन जमा ले
शैली ने लिखा है
'पोएट्स लर्नड इन सफरिंग ह्नाट दे टीच इन सांग'
मैं भी कवि रूप में विट्ठल पंत की वेदना से
जो कुछ भी सीख पाया हूँ
उसे आपके सामने रख रहा हूँ
बुराई के दूरगामी प्रभाव से हमारे पूर्वज परिचित थे
अतः उन्होंने उससे बचने का साधन भी बताया था
जब उसका सही ढंग से उपयोग होता था तो
वह अपनी म्यान में रहती थी
आज उसके सही उपयोग के प्रति हम अन्यमनस्क हैं
अतः प्रदूषण केवल वातावरण तक ही नहीं सीमित है
अब जीवन के हर क्षेत्र को विकृत बनाने का प्रयास चल रहा है
धर्मग्रंथों को अपने अनुकूल सिद्धांतों से भरा जा रहा है
परंपरा की ऊपरी परत को भेदकर तह तक जाने का प्रयास
नहीं किया जा रहा है
अपनी डफली अपनी तान का जमाना है
इसीलिए इनसानियत का उसूल हमारे लिए बेगाना है
इससे ऐसा घोर अंधकार छाया है कि
सत्य उसकी ओट में छिप गया है
विवेक नेपथ्य में चला गया है
अंधश्रद्धा-पोषित जड़-परंपरा जीवन-धर्म बन गई है
जड़-परंपरा प्रगति विरोधी होती है
वह इनसान को खेमों में बाँटती है
सब कुछ को काटती-छाँटती
अपने साँचे में ढालती है
यह हर काल में हुआ है
चेतना को जड़ता से जूझना पड़ा है
यही तो देवासुर संग्राम है जो
लगातार चल रहा है
इसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले को
काँटों का ताज पहनना या
प्रायः अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है
इतिहास के हर पृष्ठ पर उनके खून के छींटे हैं
लोगों की जुबान पर अब भी हिंसा के कसीदे हैं
विट्ठल पंत से लेकर आज के युग तक
पंचायतों के ऊल-जलूल-निर्णय से
सताए गए लोग इसके प्रमाण हैं
फिर भी पंचों को अपनी काबिलियत का गुमान है
भँवरी, इमराना, मुख्तारन इतिहास की धरोहर बन चुकी हैं

बहस-मुबाहसे हो रहे हैं
फिर भी सरपंच अपनी अलगरजी में व्यस्त हैं
उनके मस्तक पर अन्याय का त्रिपुंड है
फिर भी वे अजीब बेगानगी में अलमस्त हैं
सिद्धांत के बूचड़खाने में मुतफन्नीपन का
शस्त्र गढ़ा जा रहा है
उस पर फन फरेब की सान चढ़ाकर
इन निर्दोषों के सिर मढ़ा जा रहा है
बुद्धि पर उसी का जुनून हावी है
इसीलिए इनसानियत को जमींदोज करना प्रभावी है
अन्याय और भ्रष्टाचार के विशाल वटवृक्ष ने
समाज से समता का रस सोख लिया है
वह सूखा आम्रवृक्ष बन गया है
उसके हर कोटर में तरह-तरह के
माफिया का राज है
वे बची-खुची मानवता का रस चूस रहे हैं
देखिए तो सही आज चारों ओर
कंकाल ही दौड़ते नजर आ रहे हैं
उनकी टकराहट से उत्पन्न ध्वनि
रेडियो और टी.वी. पर बज रही है
छोटी पंचायत के कारनामों को आपने देख लिया
मझली पंचायत विधान परिषद और विधान सभा की
बड़ी पंचायत संसद की
के कारनामे ही दीगर हैं
उनके विषय में कुछ न लिखना और अधिक
समझना ही पर्याप्त है
मैं इस हादसे से उबरने के लिए अखबार उठा लेता हूँ
उसका प्रमुख शीर्षक है
पंचायत ने प्रेमी-युगल को जलाकर मार डाला
प्रेमी युवक-युवती को भाई-बहन की तरह
रहने का फरमान जारी
दहेज के लिए नवविवाहिता को जीवित जला दिया
ट्रेन में जी.आर.पी. के युवकों का युवती के साथ
सामूहिक बलात्कार
माफिया द्वारा फिरौती के लिए
व्यवसायी का अपहरण
कश्मीर में निर्दोषों का नरसंहार
नगालैंड में नागरिकों की हत्या
एक डाकू ने दर्जनों को बंधक बनाया
कक्षा में छात्रा ने गोली दागी
बिहार में जातीय संघर्ष तीव्र
निरंकारी संत की निर्मम हत्या
जहरखुरानों द्वारा ट्रेन यात्री लुटे
राजधानी एक्सप्रेस में डाका पड़ा
बाढ़ के कारण कई प्रांतों की स्थिति बदतर
संसद में सांसदों के बीच हाथा-पाई
अभी और भी मसाला उसमें था
मैं घबरा कर उसे अलग रख देता हूँ और
सिर थाम कर बैठ जाता हूँ
अचानक सुनाई पड़ता है
गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुणों से हुआ है लुंठन हमारा

विश्वासरहित श्रद्धा
सेमल का फूल है
जो देखने में तो आकर्षक
पर चोंच लगते ही चकनाचूर है

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में उपेंद्र कुमार की रचनाएँ